दर्शन

दर्शन के अर्थ :

दर्शन के गढ़वाली अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • नेत्रों के द्वारा होने वाला बोध या ज्ञान; साक्षात्कार; प्रेम भक्ति से देखना; दर्शन शास्त्र

Noun, Masculine

  • seeing, observation; worshipping, appearance; interview; philosophy.

दर्शन के अँग्रेज़ी अर्थ

Noun, Masculine

  • sight, view
  • appearance (a term used to express a sense of deference)
  • philosophy

दर्शन के हिंदी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • वह बोध जो दृष्टि के द्वार हो, चाक्षुष ज्ञान, देखादेखी, साक्षात्कार, अवलोकन, क्रि॰ प्र॰—करना, —होना
  • भेंट, मुलाकात, जैसे,— चार महीने पीछे फिर आपके दर्शन करूँगा
  • वह शास्त्र जिससे तत्वज्ञान हो, वह विद्या जिससे तत्वज्ञान हो, वह विद्या जिससे पदार्थों के धर्म, कार्य- कारण- संबंध आदि का बोध बोध हो, विशेष—प्रकृति, आत्मा, परमात्मा, जगत् के नियामक धर्म जीवन के अंतिम लक्ष्य इत्यादि का जिस शास्त्र में निरूपण हो उसे दर्शन कहते हैं, विशेष से सामान्य की ओर आंतरिक द्दष्टि को बराबर बढ़ाते हुए सृष्टि के अनेकानेक व्यापारों का कुछ तत्वों या नियमों में अंतर्भाव करना ही दर्शन है, आरंभ में अनेक प्रकार के देवताओं आदि को सृष्टि के विविध व्यापारों का कारण मानकर मनुष्य जाति बहुत काल तक संतुष्ट रही, पीछे अधिक व्यापक द्दष्टि प्राप्त हो जाने पर युक्ति और तर्क की सहायता से जब लोग संसार की उत्पत्ति, स्थिति आदि का विचार करने लगे तब दर्शन शास्ञ की उत्पत्ति, हुई, संसार की प्रत्येक सभ्य जाति के बीच इसी क्रम से इस शास्ञ का प्रादुर्भाव हुआ, पहले प्राचीन आर्य अनेक प्रकार के यज्ञ और कर्मकांड द्वारा इंद्र, वरुण, सविता इत्यादि देवताओं को प्रसन्न करके स्वर्गप्राप्ति आदि के प्रयत्न में लगे रहे, फिर सृष्टि की उत्पत्ति आदि के संबंध में उनके मन में प्रश्न उठने लगे, इस प्रकार के संशयपूर्ण प्रश्न कई वेदमंञों में पाए जाते हैं, उपनिषदों के समय में ब्रह्म, सृष्टि, मोक्ष, आत्मा, इंद्रिय, आदि विषयों की चर्चा बहुत बढ़ी, गाथा और प्रश्नोत्तर के रूप में इन विषयों का प्रतिपादन विस्तार से हुआ, बड़े बड़े गूढ़ दार्शनिक सिद्धांतों का आभास उपनिषदों में पाया जाता है, 'सर्व खल्विदं ब्रह्म', 'तत्वमसि' आदि वेदांत के महावाक्य उपनिषदों के ही है, छांदोग्योपनिषद् के छठे प्रपाठक में उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को सृष्टि की उत्पत्ति समझाकर कहा है कि 'हे' श्वेतकेतो ! तू ही ब्रह्म है', बृहदारण्यको- पनिषद् में मूर्त और अमूर्त, मर्त्य और अमृत ब्रह्म के दोहरे रूप बतलाए गए हैं, उपनिषदों के पीछे सूत्र रूप में इन तत्वों का ऋषियों ने स्वतंत्रतापूर्वक निरूपण किया और छह दर्शनों का प्रादुर्भाव हुआ जिनके नाम ये हैं—सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय मीमांसा (पूर्वमीमांसा), और वेदांत (उत्तर- मीमांसा), इनमें से सांख्य में सृष्टि की उत्पत्ति के क्रम का विस्तार के साथ जितना विवेचन है उतना और किसी में नहीं है, सांख्य आत्मा को पुरुष कहता है और उसे अकर्ता, साक्षी और प्रकृति से भिन्न मानता है, पर आत्मा एक नहीं अनेक हैं, अतः सांख्य में किसी विशेष आत्मा अर्थात् परमात्मा या ईश्वर का प्रतिपादन नहीं है, जगत् के मूल में प्रकृति का मानकर उसके सत्व, रज औऱ तम इन तीम गुणों के अनुसार ह��� संसार के सब व्यापार माने गए हैं, सृष्टि को प्रकृति की परिणामपरंपरा मानने के कारण यह मत परिणामवाद कहलाता है, सृष्टि संबंधी सांख्य का यह मत इतिहास, पुराण आदि में सर्वत्र गृहीत हुआ है, योग में क्लेश, कर्म- विपाक और आशय से रहित एक पुरुषविशेष या ईश्वर माना गया है, सर्वसाधारण के बीच जिस प्रकार के ईशवर की भावना है वह यही योग का ईश्वर है, योग में किसी मत पर विशेष तर्क वितर्क या आग्रह नहीं है; मोक्षप्राप्ति के निमित्त यम, नियम, प्राणायाम, समाधि इत्यादि के अभ्यास द्वारा ध्यान की परमावस्था की प्राप्ति के साधनों का ही विस्तार के साथ वर्णन है, न्याय में युक्ति या तर्क करने की प्रणाली बड़े विस्तार के साथ स्थिर की गई है, जिसका उपयोग पंडित लोग शास्त्रार्थ में बराबर करते हैं, खंडन मंडन के नियम इसी शास्त्र में मिलते हैं, जिनका मुख्य विषय प्रमाण और प्रमेय ही है, न्याय में ईश्वर नित्य, इच्छाज्ञानादि गुणयुक्त और कर्ता माना गया है, जीव कर्ता और भोक्ता दोनों माना गया है, वैशेषिक में द्रव्यों और उनके गुणों का विशेष रूप से निरूपण है, पृथ्वी, जल आदि के अतिरिक्त दिक्, काल, आत्मा और मन भी द्रव्य माने गए हैं, न्याय के समान वैशेषिक ने भी जगत् की उत्पत्ति परमाणुओं से बतालाई है, न्याय से इसमें बहुत कम भेद है, इसी से इसका मत भी न्याय का मत कहलाता है, ये दोनों सृष्टि का कर्ता मानते हैं इसी से इनका मत आरंभवाद कहलाता है, पूर्वमीमांसा में वैदिक कर्मसंबंधी वाक्यों के अर्थ निश्चित करने तथा विरोधों का समाधान करने के नियम निरूपित हुए हैं, इसका मुख्य विषय वैदिक कर्मकांड की व्याख्या है, उत्तरमीमांसा या वेदांत अत्यंत उच्च कोटि की विचार- पद्धति द्वारा एकमात्र ब्रह्म को जगत् का अभिन्न निमित्तोपादानकारण बतलाता है अर्थात् जगत् और ब्रह्म की एकता प्रतिपादित करता है, इसी से इसका मत विवतवाद और अद्वैतवाद कहलाता है, भाष्यकारों ने इसी सिद्धांत को लेकर आत्मा और परमात्मा की एकता सिद्ध की है, जितना यह मत विद्वानों को ग्राह्य हुआ, जितनी इसकी चर्चा संसार में हुई, जितने अनुयायी संप्रदाय इसके खड़े हुए उतने और किसी दार्शनिक मत से नहीं हुए, अरब, फारस आदि देशों में यह सूफी मत के नाम से प्रकट हुआ, आजकल योरप और अमेरिका आदि में भी इसकी ओर विशेष प्रवृत्ति है, भारतवर्ष के इन छह प्रधान दर्शनों के अतिरिक्त 'सवंदर्शनसग्रह' में चार्वाक, बौद्ध, आर्हत, नकुलीश, पाशुपत, शौव, पूर्णप्रज्ञ, रामानुज, पाणिनि और प्रत्याभिज्ञा दर्शन का भी उल्लेख है
  • नेत्र, आँख
  • स्वप्न
  • बुद्धि
  • धर्म
  • दर्पण
  • वर्ण, रंग,
  • यज्ञ, इज्या
  • उपलब्धि
  • शास्त्र
  • परीक्षण, निरीक्षण
  • प्रदर्शन, दिखावा
  • उपस्थिति या विद्यामानता (न्यायालय मे)
  • राय, सलाह, विचार
  • नीयत

दर्शन के मैथिली अर्थ

संज्ञा

  • देखनाइ, अवलोकन, भेट, साक्षात्कार
  • विशेषत: देवप्रतिमा आदिक श्रद्धापूर्वक पुण्यार्थ अवलोकन
  • वैचारिक दृष्टि, जीवन आ जगतक रहस्यक चिन्तन

Noun

  • seeing, viewing.
  • spl paying visit to an idol/dignitary.
  • Philosophy, view of life and world.

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