vikramaaditya meaning in garhwali

विक्रमादित्य

विक्रमादित्य के अर्थ :

  • स्रोत - संस्कृत

विक्रमादित्य के गढ़वाली अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • उज्जैन के प्रसिद्ध प्रतापी राजा जिन्होंने विक्रमी संवत् की स्थापना की

Noun, Masculine

  • the sovereign of Ujjain, the reputaed founder of an era which is still in use known as Vikrami Samvat.

विक्रमादित्य के हिंदी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • उज्जयिनी के एक प्रसिद्ध प्रतापी राजा का नाम

    विशेष
    . इनके संबंध में अनेक प्रकार के प्रवाद प्रचलित हैं। ये बहुत बड़े विद्याप्रेमी, कवि, उदार, गुणग्राहक और दानी कहे जाते हैं, यह भी कहा जाता है कि इनकी सभा में नौ बहुत बड़े-बड़े और प्रसिद्ध पंडित रहा करते थे, जो 'नवरत्न' कहलाते थे और जिनके नाम इस प्रकार हैं- कालिदास, बररुचि, अमरसिंह, धनवंतरि, क्षपणक, वेतालभद्द, घटकर्पर, शंकु और वाराहमिहिर। परंतु ऐतिहासिक द्दष्टि से इन नौ विद्धानों का एक ही समय में होना सिद्ध नहीं होता, जिससे 'नवरत्न' को लोग कल्पित ही समझते हैं। आजकल जो विक्रमी संवत् प्रचलित है, उसके संबंध में भी लोगों की यही धारणा है कि इन्हीं राजा विक्रमादित्य का चलाया हुआ है पर इस बात का भी कोई ऐतिहासिक प्रमाण अभी तक नहीं मिला है कि विक्रमी संवत् के आरंभ होने के समय मालव देश में या उसके आसपास विक्रमादित्य नाम का कोई राजा रहता था। विक्रमी सवत् किस राजा विक्रमादित्य का चलाया हुआ है, इसका अभी तक कीई ठीक ठीक पता नहीं चला है। कुछ विद्वानो का मत है कि विक्रम संवत् का विक्रमादित्य नाम के किसी राजा के साथ कोई संबध नहीं है और न वह किसी एक व्यक्ति का चलाया हुआ है। उनका मत है कि ईसवी सन् से ५८ वर्ष पूर्व शक नहपाण को गौतमीपुत्र ने युद्ध में बुरी तरह परास्त करके उसे मार डाला था। इस युद्ध में उसने अपना जो विक्रम (वीरता) दिखलाया था, उसी की स्मृति के रूप में मालवों के गण ने उसी तिथि मे 'कृत युग का आरंभ माना' और इस प्रकार इस विक्रम संवत् का प्रचार हुआ। तात्पर्य यह है कि संवत् वाला 'विक्रम' शब्द किसी विक्रमादित्य नामक संवत् चलाने वाले राजा का सूचक नहीं है, बल्कि वह पीछे के किसी राजा के विक्रम या वीरता का बोधक है। स्कंदपुराण में लिखा है कि कलियुग के तीन हज़ार वर्ष बीत जाने पर विक्रमादित्य नाम का एक बहुत प्रतापी राजा हुआ था । मोटे हिसाब से यह समय ईसवी सन् से प्रायः सौ वर्ष पूर्व पड़ता है; पर यह राजा कौन था, इसका निश्चय नहीं होता । यह भी प्रसिद्ध है कि इस राजा ने शकों को एक घोर युद्ध में पराजित किया था और उसी विजय के उपलक्ष में अपना संवत् भी चलाया था। शकों को पराजित करने के कारण ही इसकी एक उपाधि 'शकारि' भी हो गई थी। बौद्धों और जैनियों के धर्मग्रंथों तथा चीनी और अरबी आदि यात्रियों के यात्रा विवरणों में भी विक्रमादित्य के संबंध में कुछ फुटकर बातें पाई जाती हैं। पर न तो यही ज्ञात है कि इन्होंने कब से कब तक राज्य किया और न इनके जीवन की और बातों का ही कोई क्रपबद्ध इतिहास मिला है। इतिहास से यह भी पता चलता है कि गुप्तवंशीय प्रथम चंद्रगुप्त ने उत्तर भारत में शकों को परास्त करके 'विक्रमादित्य' के उपाधि धारण की थी, परंतु ये सवत् चलानेवाले विक्रमादित्य के बहुत वाद के हैं। इसके अतिरिक्त इसी गुप्तवंश के समुद्रगुप्त के पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त ने भी 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी। ईसवी सातवीं शताब्दी के आरंभ में काश्मीर में भी विक्रमादित्य नाम का एक राजा हुआ था जिसके पिता का नाम रणादित्य था। इसी प्रकार चालुक्य वंश में भी इस नाम के कई राजा हो गए हैं। पीछे से तो मानो यह प्रथा सी चल पड़ी थी कि जहाँ कोई राजा कुछ अधिक बढ़ निकलता था, वहाँ वह अपने नाम के साथ 'विक्रमादित्य' की उपाधि लगा लिया करता था। यहाँ तक कि अकबर की बाल्यावस्था में जब हेमूँ ढूसर ने दिल्ली पर अधिकार किया, तब वहु भी विक्रमादित्य बन बैठा था।

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