जीवात्मा

जीवात्मा के अर्थ :

  • स्रोत - संस्कृत

जीवात्मा के हिंदी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • प्राणियों की चेतनवृत्ति का कारणस्वरूप पदार्थ, वह तत्व जो प्राणियों की चेतनवृत्ति या जीवन का मूल कारण हो, आत्मा, प्रत्यगात्मा, जीव

    विशेष
    . अनेक धार्मिक और दार्शनिक मतों के अनुसार शरीर से भिन्न एक जीवात्मा है। इसके अनेक प्रमाण शास्त्रों में दिए गए हैं। सांख्य दर्शन में आत्मा को 'पुरुष' कहा है और उसे नित्य, त्रिगुणशून्य, चेतन स्वरूप, साक्षी, कूटस्थ, द्रष्टा। विवेकी, सुख—दुःख—शून्य, मध्यस्थ और उदासीन माना है। आत्मा या पुरुष अकर्ता है, कोई कार्य नहीं करता, सब कार्य प्रकृति करती है। प्रकृति के कार्य को हम अपना (आत्मा का) कार्य समझते हैं। यह भ्रम है। न आत्मा कुछ कार्य करता है, न सुख दुःखादि फल भोगता है। सुख दुःख आदि भोग करना बुद्धि का धर्म है। आत्मा न बद्ध होता है, न मुक्त होता है। कठोपनिषद में आत्मा का परिमाण अंगुष्ठमात्र लिखा है। इस पर सांख्य के भाष्यकार विज्ञानभिक्षु ने बतलाया है कि अंगुष्ठमात्र से आभिप्राय अत्यंत सूक्ष्म से है। योग और वेदांत दर्शन भी आत्मा को सुख-दुःख आदि का भोक्ता नहीं मानती। न्याय, वैशेषिक और मीमांसा दर्शन आत्मा को कर्मों का कर्ता और फलों का भोक्ता मानते हैं। न्याय वैशेषिक मतानुसार जीवात्मा नित्य, प्रति शरीर भिन्न और व्यापक है। शांकर वेदांत दर्शन में जीवात्मा और परमात्मा को एक ही माना गया है। उपाधियुक्त होने से ही जीवात्मा अपने को पृथक् समझता है, पूर्ण प्राप्त होने पर यह भ्रम मिट जाता है और जीवात्मा ब्रह्मास्वरूप हो जाता है। सांख्य, वेदांत योग आदि सभी जीवात्मा को नित्य मानते हैं। बौद्ध दर्शन के अनुसार जैसे सब पदार्थ क्षणिक हैं उसी प्रकार आत्मा भी। जीवात्मा एक क्षण में उत्पन्न होता है और दूसरे क्षण में नष्ट हो जाता है। अतः क्षणिक ज्ञान का नाम ही आत्मा है। जिसकी धारा चलती रहती है और एक क्षण का ज्ञान या विज्ञान नष्ट होता है। और दूसरा क्षणिक विज्ञान उत्पन्न होता है। इसे पूर्ववर्ती विज्ञानों के संस्कार और ज्ञान प्राप्त होते रहते हैं। इस क्षणिक ज्ञान के अतिरिक्त कोई नित्य या स्थिर आत्मा नहीं। माध्यमिक शाखा के बौद्ध तो इस क्षणिक विज्ञान रूप आत्मा को भी नहीं स्वीकार, करते; सब कुछ शून्य मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि कोई वस्तु सत्य होती तो सब अवस्थाओं में बनी रहती। योगाचार शाखा के बौद्ध आत्मा को क्षणिक विज्ञान स्वरूप मानते हैं और इस विज्ञान को दो प्रकार का कहते हैं। —एक प्रवृत्ति विज्ञान और दूसरा आलय विज्ञान। जाग्रत और सुप्त अवस्था में जो ज्ञान होता है उसे प्रवृत्ति विज्ञान कहते हैं और सुषुप्ति अवस्था में जो ज्ञान होता उसे आलय विज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान आत्मा ही को होता है। जैन दर्शन भी आत्मा को चिर, स्थायी और प्रत्येक प्राणी में पृथक् मानता है। उपनिषदों में जीवात्मा का स्थान हृदय माना है पर आधुनिक परीक्षाओं से यह बात अच्छी तरह प्रकट हो चुकी है कि समस्त चेतन व्यापारों का स्थान मस्तिष्क है। मस्तिष्क को ब्रह्माड भी कहते हैं।

  • वह शक्ति जिसके कारण प्राणी जीवित रहते हैं
  • प्राण
  • हृदय

जीवात्मा के कन्नौजी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • जीव, देहस्थ चैतन्य, व्यष्टि आत्मा

जीवात्मा के मालवी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • चेतना, प्राणी।

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