न्याय

न्याय के अर्थ :

  • स्रोत - संस्कृत

न्याय के अँग्रेज़ी अर्थ

Noun, Masculine

  • justice
  • fairness
  • a popular maxim or apposite illustration (as घुणाक्षर न्याय)
  • logic

न्याय के हिंदी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • नियम के अनुकूल बात, उचित बात, हक़ बात, नीति, इंसाफ़

    उदाहरण
    . अपराध कोई करे और दंड कोई पावे यह कहाँ का न्याय है। . न्याय तो यही है कि तुम उसका रुपया फेर दो।

  • ऐसा आचरण जिसमें पक्षपात या बेईमानी न हो, विधिसम्मत व्यवहार, क़ानूनी कार्रवाई
  • विवाद या व्यवहार में उचित-अनुचित का निबटारा, किसी मामले मुक़दमें में दोषी और निर्दोष, अधिकारी और अनधिकारी आदि का निर्धारण, सदसद्धिवेक, दो पक्षों के बीच निर्णय, प्रमाणपूर्वक निश्चय, फ़ैसला, निबटारा

    उदाहरण
    . राजा अच्छा न्याय करता है। . इस अदालत में ठीक न्याय नहीं होता।

  • वह शास्त्र जिसमें किसी वस्तु के यथार्थ ज्ञान के लिए विचारों की उचित योजना का निरुपण होता है, विवेचनपद्धति, प्रमाण, दृष्टांत, तर्क आदि से युक्त वाक्य

    विशेष
    . न्याय छह दर्शनों में है। इसके प्रवर्तक गौतम ऋषि मिथिला के निवासी कहे जाते हैं। गौतम के न्यायसूत्र अब तक प्रसिद्ध हैं। इन सुत्रों पर वात्स्यायन मुनि का भाष्य है। इस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा है। वार्तिक की व्याख्या वाचस्पति मिश्र ने 'न्यायवार्तिक तात्पर्य टीका' के नाम से लिखी है। इस टीका की भी टीका उदयनाचार्य कृत 'ताप्तर्य-परिशुद्धि' है। इस परिशुद्धि पर वर्धमान उपाध्याय कृत 'प्रकाश' है। गौतम का न्याय केवल प्रमाण तर्क आदि के नियम निश्चित करने वाला शास्त्र नहीं है बल्कि आत्मा, इंद्रिय, पुनर्जन्म, दुःख अपवर्ग आदि विशिष्ट प्रमेयों का विचार करने वाला दर्शन है। गौतम ने सोलह पदार्थों का विचार किया है और उनके सम्यक् ज्ञान द्वारा अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति कही है। सोलह पदार्थ या विषय में हैं।—प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टांत, सिद्धांत, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान। इन विषयों पर विचार किसी मध्यस्थ के सामने वादी-प्रतिवादी के कथोपकथन के रूप में कराया गया है। किसी विषय में विवाद उपस्थित होने पर पहले इसका निर्णय आवश्यक होता है कि दोनों वादियों के कौन-कौन प्रमाण माने जाएँगे। इससे पहले 'प्रमाण' लिया गया है। इसके उपरांत विवाद का विषय अर्थात् 'प्रमेय' का विचार हुआ है। विषय सूचित हो जाने पर मध्यस्त के चित्त में संदेह उत्पन्न होगा कि उसका यथार्थ स्वरूप क्या है। उसी का विचार 'संशय' या 'संदेह' पदार्थ के के नाम से हुआ है। संदेह के उपरंत मध्यस्थ के चित्त में यह विचार हो सकता है कि इस विषय के विचार से क्या मतलब। यही 'प्रयोजन' हुआ। वादी संदिग्ध विषय पर अपना पक्ष दृष्टांत दिखाकर बतलाता है, वही 'दृष्टांत' पदार्थ है। जिस पक्ष को वादी पुष्ट करके बतलाता है वह उसका 'सिद्धांत' हुआ। वादी का पक्ष सूचित होने पर पक्षसाधन की जो जो युक्तियाँ कही गई हैं प्रतिवादी उनके खंड-खंड करके उनके खंडन में प्रवृत्त होता है। युक्तियों की खंडित देख वादी फिर से और युक्तियाँ देता है जिनसे प्रतिवादी की युक्तियों का उत्तर हो जाता है। यही 'तर्क' कहा गया है। तर्क द्वारा पंचावयवयुक्त युक्तियों का कथन 'वाद' कहा गया है। वाद या शास्त्रार्थ द्वारा स्थिर सत्य पक्ष को न मानकर यदि प्रतिवादी जीत की इच्छा से अपनी चतुराई के बल से व्यर्थ उत्तर प्रत्युत्तर करता चला जाता है तो वह 'अल्प' कहलाता है। इस प्रकार प्रतिवादी कुछ काल तक तो कुछ अच्छी युक्तियाँ देता जाएगा फिर ऊटपटाँग बकने लगेगा जिसे 'वितंडा' कहते हैं। इस वितंडा में जितने हेतु दिए जाएँगे वे ठीक न होंगे, वे 'हेत्वाभास' मात्र होंगे। उन हेतुओं और युक्तियों के अतिरिक्त जान बूझकर वादी को घबराने के लिए उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि घबराने के लिए उसके वाक्यों का ऊटपटाँग अर्थ करके यदि प्रतिवादी गड़बड़ डालना चाहता है तो वह उसका 'छल' कहलाता है और यदि व्याप्ति निरपेक्ष साधर्म्य, वैधर्म्य आदि के सहारे अपना पक्ष स्थापित करने लगता है तो वह 'जाति' में आ जाता है। इस प्रकार होते- होते जब शास्त्रार्थ में यह अवस्था आ जाती है कि अब प्रतिवादी को रोककर शास्त्रार्थ बंद किया जाए तब 'निग्रहस्थान' कहा जाता है। (विवरण प्रत्येक शब्द के अंतर्गत देखी)। न्याय का मुख्य विषय है प्रमाण। 'प्रमा' नाम है यथार्थ ज्ञान का। यथार्थ ज्ञान का जो करण हो अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ ज्ञान हो उसे प्रमाण कहते हैं। गौतम ने चार प्रमाण माने हैं—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द। इनमें से आत्मा, मन और इंद्रिय का संयोग रूप जो ज्ञान का करण या प्रमाण है वही प्रत्यक्ष है। वस्तु के साथ इंद्रिय संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है उसी को 'प्रत्यक्ष' कहते हैं। प्रत्यक्ष को लेकर जो ज्ञान (तथा ज्ञान के कारण) को अनुमान कहते हैं। जैसे— हमने बराबर देखा है कि जहाँ धुआँ रहता है वहाँ आग रहती है। इसी को नैयायिक व्याप्ति ज्ञान कहते हैं जो अनुमान की पहली सीढ़ी है। हमने कहीं धूआँ देखा जो आग कि जिस धूएँ के साथ सदा हमने आग देखी है वह यहाँ हैं। इसके अनंतर्गत हमें यह ज्ञान या अनुमान उत्पन्न हुआ कि 'यहाँ आग है'। अपने समझने के लिए तो उपयुक्त तीन खंड काफ़ी है पर नैयायिकों का कार्य है दूसरे के मन में ज्ञान कराना, इससे वे अनुमान के पाँच खंड करते हैं जो 'अवयव' कहलाते हैं।

    उदाहरण
    . पंडित रमाशंकरजी न्याय के बहुत बड़े ज्ञाता हैं।

  • विधि, क़ानून
  • दृष्टांत वाक्य जिसका व्यवहार लोक में कोई प्रसंग आ पड़ने पर होता है, कोई विलक्षण घटना सूचित करने वाली उक्ति जो उपस्थित बात पर घटती हो, कहावत
  • सादृश्यता, अमानता, तुल्यता
  • पद्धति, रीति
  • उचित-अनुचित का विवेक, औचित्य
  • विष्णु का एक नाम

न्याय से संबंधित मुहावरे

न्याय के कन्नौजी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • इंसाफ़, नीति संगत बात
  • फै़सला, निबटारा

न्याय के कुमाउँनी अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • उचित-अनुचित का विवेक, नीतिसंगत बात
  • इंसाफ़

न्याय के बुंदेली अर्थ

संज्ञा, पुल्लिंग

  • इंसाफ़

    उदाहरण
    . एक राजा करें सौ न्याय।

न्याय के ब्रज अर्थ

न्याइ, न्याउ, न्याव

संज्ञा, पुल्लिंग

  • उचित-अनुचित का विवेक

    उदाहरण
    . रीत है न प्रीत है न नीत है न्याव कहूँ।

  • इंसाफ़

न्याय के मैथिली अर्थ

संज्ञा

  • नियम-क़ानून का उचित-अनुचित विवेचन
  • पूर्वक दृष्टांत, पूर्वोदाहरण
  • तर्कशास्त्र

Noun

  • justice
  • precedent

    उदाहरण
    . मत्स्य न्याय।

  • logic

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