puurNdarshan meaning in hindi
पूर्णदर्शन के हिंदी अर्थ
संज्ञा, पुल्लिंग
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सर्वदर्शन संग्रह के अनुसार वह दर्शन जिसके प्रवर्तक पूर्णप्रज्ञ या मध्यचार्य हैं
विशेष
. इस दर्शन का आधार वेदांतसूत्र और उस पर रामानुज कृत भाष्य है। इसके अधिकतर सिद्धांत रामानुज दर्शन के सिद्धांती से मिलते हैं। दोनों का मुख्य अंतर ईश्वर और जीव के भेदाभेद के विषय में है। इस संबंध में रामानुज दर्शन का भेद, अभेद और भेदाभेद सिद्धांत इस दर्शन को स्वीकार नहीं है। इसके मत से से जीव और ईश्वर में किसी प्रकार का सूक्ष्म या स्थूल अभेद नहीं है, किंतु स्पष्ट भेद है। उनका संबंध शरीरात्म भाव का नहीं है, बल्कि सेव्य सेवक भाव का है। अंतर्यामी होने के कारण जीव ईश्वर का शरीर नहीं है, बल्कि उसका सेवक और अधीन है। ईश्वर स्वतंत्र तत्व और जीव अस्वतंत्र तत्व और ईश्वरायत्त है। इस दर्शन के मत से पदार्थ के तीन भेद हैं—चित् (जीव), अचित् (जड़) और ईश्वर। चित् जीवपदवाच्य, भौक्ता, असंकुचित, अपरिच्छिन्न, निर्मल ज्ञानस्वरूप, नित्य, अनादि और कर्मरूप अविद्या से ढका हुआ है। ईश्वर का आराधन और उसकी प्राप्ति उसका स्वभाव है। (आकार में) वह बाल की नोक के सौवें भाग के बराबर है। अचित् पदार्थ दृश्यपदवाच्य, त्रोग्य, अचेतनस्वरूप और विकारशील हैं। फिर भोग्य, भोगोपकरण और भोगायतन या भोगाधार रूप से इसके भी तीन भेद हैं। ईश्वर हरिपदवाच्य, सबका नियामक, जगत् का कर्ता, उपादान, सकलांतर्यामी, अपरिच्छिन्न और ज्ञान, ऐश्वर्य, वीर्य, शक्ति, तेज आदि गुणों से संपन्न है। इस दर्शन के अनुसार यह निखिल जगत् अनंत समुद्रशायी भगवान् विष्णु से उत्पन्न हुआ है। चित् और अचित् संपूर्ण पदार्थ उनके शरीररूप हैं। पुरुषोत्तम, वासुदेवादि उनकी संज्ञाएँ हैं। उपासकों को यथोचित फल देने के लिए लीलावश वे पाँच प्रकार की मूर्तियाँ धारण करते हैं। प्रथम अर्चा अर्थात् प्रतिमादि, द्वितीय विभव अर्थात् रामादि अवतार, तृतीय बासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध ये चार संज्ञाक्रांत व्यूह, चतुर्थ सूक्ष्म और संपूर्ण वासुदेव नामक परब्रह्म पंचम अंतर्यामी सकल जीवों के नियंता उपासक क्रम से पूर्व मूर्ति की उपासना द्वारा पापक्षय करके परमूर्ति की उपासना का अधिकारी होता है। अभिगमन, उपादान, इज्या, स्वाध्याय और योग नाम से भगवान् की उपासना के भी पाँच प्रकार हैं। देवमंदिर का मार्जन, अनुलेपन आदि अभिगमन है; गंध पुष्पादि पूजा के उपकरणों का आयोजन उपादान; पूजा इज्या; अर्थानुसंधान के सहित मंत्रजप, स्तोत्रपाठ, नामकीर्तन ओर तत्व प्रतिपादक शास्त्रों का अभ्यास स्वाध्याय, और देवता का अनुसंधान योग है। इन उपासनाओं के द्वारा ज्ञानलाभ होने पर भगवान् उपासक को नित्यपद प्रदान करते हैं। इस पद को प्राप्त होने पर भगवान् का यथार्थ रूप में ज्ञान होता है और फिर जन्म नहीं लेना पड़ता। पूर्णप्रज्ञ के मत से भगवान् विष्णु की सेवा तीन प्रकार की है अंकन, नामकरण और भजन। गरम लोहे से दागकर शरीर पर शंख, चक्र आदि के चिह्न उत्पन्न करना अंकन है; पुत्र पौत्रादि के केशव नारायण आदि नाम रखना नामकरण। भजन के कायिक, वाचिक और मानसिक भेद से तीन प्रकार हैं। फिर इनके भी कई गई भेद हैं,—कायिक के दान, परित्राण और परिरक्षण, वाचिक के सत्य, हित प्रिय और स्वाध्याय, और मानसिक के दया, स्पृहा और श्रद्धा।
पूर्णदर्शन के तुकांत शब्द
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